Description
भारत-विजय-गाथा (महाकाव्य, महाराज मनु से मोदी तक)
बिना कडी टूटे भारत का पूरा इतिहास
भारत सबसे प्राचीन देश माना जाता है। इस बात के कई प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि कभी पूरा विश्व एक था, एक ही संस्कृति के सब पालक थे, एक ही सबका धर्म था, एक ही ईश्वर के सब उपासक थे, सभी महाराज मनु रचित ‘मानव-धर्म-शास्त्र’ का पालन करते थे। जब जनसंख्या का विस्तार हुआ तो एक परिवार की भांति, फैलाव भी हुआ और धीरे-धीरे नगर बने, देश बने। अलग-अलग देशों को चलाने के लिए अलग-अलग नियम बनने लगे, हालांकि अभी भी सभी सनातन धर्म के ही पालक थे।
लम्बे समय तक सभी देशों में समभाव और सद्भाव बना रहा किन्तु समय के साथ-साथ आवश्यकताओं का जन्म हुआ, लालच पैदा होने लगा, एक दूसरे को नीचे दिखाने की प्रवृत्ति पल्लवित लेने लगी। इस सबके चलते आपस में कलह बढी जिससे हथियारों और ध्वजों का आविष्कार हुआ, और मानव मानव से दूर होता चला गया। समाज में असंतुष्ट लोगों की संख्या में बढोत्तरी होने लगी जिनको एकजुट करके ऋषि शुक्राचार्य ने अलग धर्म चलाया जिसे राक्षस धर्म कहा गया। राक्षस धर्म को मानने वाले बाहुबली और विज्ञानी थे, जबकि सनातनी बाहुबली होने के साथ-साथ, मर्मज्ञ, जिज्ञासु, सुसंस्कृत एवं सहिष्णु भी थे। दोनों अलग-अलग विचारधाराएँ थीं, युद्ध हुए, विस्तार बढता गया। ज्यों ज्यों समय बीतता रहा, सनातन धर्म और राक्षस धर्म, दोनों में विखण्डन होता चला गया और वर्तमान में जितने भी सम्प्रदाय हम देखते हैं, सबने एक एक करके जन्म लिया किन्तु प्रत्येक सम्प्रदाय को बारीकी से देखने पर हम समझ पाएँगे कि सभी के मूल में अभी भी वही है जो था, मूल प्रार्थनाएँ एक हैं, प्रार्थनाओं के तरीके भी लगभग-लगभग एक जैसे हैं, प्रकृति का भय और प्रकृति से सामंजस्य रखने के नियम और रीति-रिवाज एक से हैं। विभिन्न विचारधाराएँ होने के बावजूद हम सब इस बात पर एकमत हैं कि ईश्वर एक है और वही इस सृष्टि का कत्र्ता-धर्ता है, वही परमपिता है, वही परमेश्वर है, जिसके क्षेत्र, संस्कृति और रीति-रिवाज के भिन्न होने के कारण उसके नाम और स्वरूप भी भिन्न भिन्न माने जाने लगे हैं।
इन सबके बीच भारत का वर्चस्व दुनिया में बना रहा, आर्थिक, सामाजिक, वैज्ञानिक, वैचारिक, शैक्षिक क्षेत्र और शक्ति में भारत अग्रणी रहा। हालांकि भारत में भी हलचलों की कभी कोई कमी नहीं रही, इसकी संस्कृति पर, सामाजिक ताने बाने पर, हजारों बार जाने कितने आघात लगे किन्तु फिर भी भारत अपनी संस्कृति के साथ आज भी अडिग खडा है और विश्व इसके द्वारा अपनी अगवानी के लिए इसकी ओर निहार रहा है।
यह सब सच है, किन्तु हम आज स्वयं को भुला बैठे हैं। यह पुस्तक यह प्रयास करती है कि भारत के लोगों के साथ संसार भर के लोगों को उनसे परिचित कराए, उन्हें बताए कि उनके परिवार में किस तरह बिखराव आता रहा, कैसे हमारे विचार एक होते हुए भी अलग अलग होते रहे, हम क्यूॅं एक होते हुए भी आपस में लडते रहे। हम सबका मूल एक है, हम सबकी मूल सभ्यता एक है, विभिन्न विचारधाराओं के रहते हुए भी हम किस प्रकार से एक हैं। हमारे प्यारे देश भारत ने कब-कब, कौन-कौन से झंझावातों का डटकर मुकाबला किया, हमारे पूर्वज हमें क्या-क्या ज्ञान देकर गए जिसे हमने भुला दिया। हमारी रगों में किनका खून बह रहा है। दुनिया भर के देश कैसे हमारे अपने हैं, हमारी संस्कृति क्यूॅं कहती है ‘वसुन्धैव कुटुम्बकम’। हम किस प्रकार सम्प्रदायों, जातियों और गोत्रों में बॅंटे। कब किसने कौन से नगर और देश बसाए, क्यों बसाए, उनके कब-कब नाम बदल गए, कब उनकी संस्कृति बदली, वे देश किस तरह आगे बढे और विकास किया। क्यों भारत के अतुल इतिहास को तोड-मरोडकर उसे कथामात्र बनाकर रख दिया। कैसे हमारे पूर्वजों के चरित्रों को बिगाडा गया, किस प्रकार हमने ही अपने ही इतिहास का मखौल उडाया, हमारे साथ क्या धोखे हुए, हमने क्या-क्या सहा और किया, कब हमारी सांस्कृतिक अस्मिता का हरण किया गया, कब-कब हमारे शरीर पर घाव बनाए गए और गुलामी के धब्बे लगाए गए। उन घावों को किसने कैसे भरा और गुलामी के उन धब्बों को किस-किसने कैसे-कैसे अपने खून से धोकर मिटाया और किस प्रकार हमने इन धोखों और झंझावातों को धत्ता बताकर परम वैभव की ओर चरण पखारे हैं।
यह पुस्तक हमारा हमसे परिचय कराएगी, हमारा भाल गर्व से उॅंचा कराएगी। हमारी भूलों को हमें समझाएगी, भूले हुए माॅं भारती के लालों की याद दिलाएगी, आगे का रास्ता प्रशस्त करेगी।
कृष्णपाल ‘भारत’
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